
एक बार महर्षि नारद देवताओं के लोक-लोकांतरों में भ्रमण करते हुए कैलाश पर्वत पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने भगवान शिव को समाधि में लीन देखा। माता पार्वती भी वहीं थीं, शांत और मंद मुस्कान से युक्त।
नारद जी ने प्रणाम करके पूछा,
“भगवन्! आप योगी भी हैं, गृहस्थ भी हैं, रुद्र भी हैं और शांत भी। आप अद्वैत के उपदेशक हैं और भक्ति के आदर्श भी। कृपा करके बताइए – आप वास्तव में कौन हैं?”
शिव मुस्कुराए और कहा:
“मैं वही हूँ जो तुम हो, जो यह ब्रह्मांड है, और जो उस पार भी है।
मैं न शिव हूँ, न शून्य – मैं वो हूँ जिसे जान लेने से प्रश्न समाप्त हो जाते हैं।
परंतु जब भक्त मुझे ‘भोलेनाथ’ कहकर पुकारते हैं, तब मैं उनके अंतःकरण में प्रकट हो जाता हूँ।”
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शिव का रहस्य:
पार्वती जी ने भी जिज्ञासा प्रकट की –
“प्रभु, आप बिना किसी भेद के सब पर कृपा क्यों करते हैं? चाहे असुर हो या देव?”
शिव बोले:
“मैं भेद नहीं जानता, मैं भाव देखता हूँ।
रावण ने भी जब श्रद्धा से ‘शिवतांडव’ किया, तो वह मेरा प्रिय बन गया।
वहीं ब्रह्मा ने जब अहंकार किया, तो मैंने उन्हें भी सबक सिखाया।
जो निःस्वार्थ भाव से मुझे पुकारता है, वह मेरा हो जाता है।”
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शिव का उपदेश:
नारद जी ने आगे पूछा,
“भगवन्, मानव जीवन में सबसे बड़ा धर्म क्या है?”
शिव बोले:
“सत्य बोलो, करुणा रखो, और आत्मा को जानो।
जो अपने भीतर के शिव को पहचानता है, वही मुक्त होता है।
और सबसे बड़ी भक्ति है – अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाना।”
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शिव चर्चा का सार:
शिव चर्चा केवल स्तुति नहीं, एक अनुभव है।
शिव वियोग में भी शांति हैं और तांडव में भी प्रेम।
वे समाधि में मौन हैं, पर भूतों के साथ नाचते भी हैं।
वे त्रिनेत्रधारी हैं, पर अपने भक्तों के लिए नेत्रों से अश्रु भी बहाते हैं।
उनकी लीला अपरंपार है –
वह अर्द्धनारीश्वर बनकर समता सिखाते हैं,
और नीलकंठ बनकर विश्व का विष स्वयं पी जाते हैं।
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उपसंहार:
जो शिव में लीन होता है, वह संसार के बंधनों से मुक्त होता है।
शिव वही हैं जो शून्य भी हैं और अनंत भी।
इसलिए हम उन्हें केवल पूजते नहीं –
हम उन्हें जीते हैं, उन्हें अनुभव करते हैं।
हर हर महादेव!